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जीवन : अकेले चलो या सबके साथ?* “सुख का असली रहस्य समावेशिता में छुपा है”



आजकल ज़्यादातर इंसान के मन में एक ही सवाल है –

*मुझे सच में क्या चाहिए?*

और जवाब लगभग एक ही होता है – मुझे सुखी होना है, खुश रहना है।


लेकिन अजीब बात यह है कि इंसान जिस दिशा में जाना चाहता है, उसका आचरण बिल्कुल उलटी दिशा में होता है।


*सुख चाहिए… पर व्यवहार उलटा*

सुखी परिवार चाहिए, पर जिस वातावरण पर परिवार टिका है, उसके साथ तालमेल बिठाने की तैयारी ही नहीं।

उदाहरण के लिए –

घर के हर सदस्य को सम्मान, प्रतिष्ठा और आत्मीयता चाहिए। यह इच्छा ग़लत नहीं है।

लेकिन अगर वही सदस्य घरवालों से कटु व्यवहार करे, प्रेम न दिखाए, दूरी बनाए और केवल अपने बारे में ही सोचे – तो उसे चाहा हुआ सम्मान मिलेगा कैसे?

यहाँ प्रश्न इच्छा सही है या ग़लत, यह नहीं है।

प्रश्न है –

दूसरों को अलग करके हम सुख कैसे पा सकते हैं?


*जीवन का सिद्धांत : समावेशिता*

जीवन सिर्फ मेरा और मेरे लिए नहीं है।

जीवन समावेशी होना चाहिए, बहिष्कृत नहीं।

(Life should be inclusive, not exclusive.)

सुख केवल अपने लिए चाहा, तो वही दुख का कारण बनता है।

सुख अगर सबको साथ लेकर चाहा, तो वही सच्चे सुख का मार्ग बनता है।


*प्रकृति का सबक :* समावेशिता ही समृद्धि है

प्रकृति को ध्यान से देखें तो तुरंत समझ आता है –

वह हमेशा समावेशी है, इसलिए हमेशा फलती-फूलती और आनंदमय है।

• वृक्ष : छाया, फल, फूल और प्राणवायु सबको देता है, बिना भेदभाव।

• सूर्य : प्रकाश और ऊष्मा रोज़ सबको समान रूप से देता है – अच्छे को भी, बुरे को भी।

• नदी : पानी निरंतर बहाती रहती है – किसान के लिए, पशु-पक्षी के लिए, पीने के लिए, सबके लिए।

• हवा : श्वास लेने की हवा सबको मिलती है, बिना किसी नाम या हिसाब के।


प्रकृति समावेशी है, इसलिए वह सदा हरी-भरी, फलती-फूलती और आनंदमय है।

और अगर हम भी प्रकृति जैसे बने, तो हमारा जीवन भी उसी तरह खिल उठेगा।


मैं भी प्रकृति का अविभाज्य अंग हूँ। तो मेरे जीवन की प्रकृति को खिलाना किसे है?

सोचिए…


सद्गुरु श्री वामनराव पै कहते हैं –

*तू ही है अपने जीवन का शिल्पकार।*

यानी – मेरा सुख, मेरा आनंद, मेरा दुख, मेरा कष्ट… यह सब मेरे ही कर्मों का फल है।

लेकिन हम क्या करते हैं?

अपना दुख दूसरों पर डालते हैं।

रिश्तेदारों पर, परिस्थितियों पर, दुनिया पर दोष लगाते हैं।


असल में जिस दिन यह समझ आ जाएगा कि मेरे जीवन में जो कुछ हो रहा है, उसका जिम्मेदार मैं ही हूँ,

उस दिन से मेरी असली सुख-यात्रा शुरू होगी।

क्योंकि मुझे सुखी भी मैं ही कर सकता हूँ, और दुखी भी मैं ही कर सकता हूँ।


*अनुभव की गहराई*

जीवन न तो कोई दर्शन है, न विचारधारा, न धर्मग्रंथ और न ही केवल विश्वास।

जीवन सिर्फ़ – अनुभव है।

और उस अनुभव की गहराई ही जीवन का असली स्तर तय करती है।


सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान – अगर हम इन सबको गहराई से स्वीकार लें, तो हर अनुभव हमें और मज़बूत और परिपक्व बनाता है।


*असली कसौटी*

अंत में मृत्यु के क्षण यह निर्विवाद स्पष्ट कर देते हैं।

संपत्ति के पीछे जीवनभर भागने वाला व्यक्ति एक पल में निश्चल हो जाता है। उसके सामने सोने का पहाड़ रख दो, तो भी आकर्षण नहीं रहता।

हम सबको वहीं पहुँचना है।


तो समझदारी का काम यही है कि यह अभी समझ लें।

जीवन सिर्फ़ अपने लिए नहीं –

बल्कि अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी है।


*”अकेले चलो” बनाम “सबके साथ” – वैज्ञानिक दृष्टिकोण*

🔹 “अकेले चलो” – सिर्फ़ अपने लिए जीना

*मानसिक प्रभाव*

• अकेलापन और असुरक्षा – सामाजिक एकाकीपन से डिप्रेशन और एंग्ज़ायटी बढ़ती है।

• लोभ और असंतोष – और अधिक पाने की दौड़, लेकिन संतोष शून्य।

• तनाव – ज़िम्मेदारी सीमित, पर अपेक्षाएँ असीमित।


*शारीरिक प्रभाव*

• Cortisol (तनाव हार्मोन) लगातार बढ़ा हुआ, शरीर हमेशा “stress mode” में।

• हृदय रोग और उच्च रक्तचाप का ख़तरा।

• बुज़ुर्गावस्था में स्मृतिभ्रंश (dementia) की संभावना अधिक।


🔹 *”सबके साथ” – समावेशी जीवन*

*मानसिक प्रभाव*

• सुरक्षा और आनंद – Oxytocin (bonding hormone) बढ़ने से विश्वास और आत्मीयता।

• मानसिक शांति – Dopamine और Serotonin बढ़ने से खुशी की अवस्था।

• सृजनात्मकता और आत्मविश्वास – समूह में सुरक्षा का अनुभव होने से नई सोच पनपती है।


*शारीरिक प्रभाव*

• रक्तचाप नियंत्रित रहता है, हृदय स्वस्थ रहता है।

• प्रतिरोधक शक्ति (immunity) मज़बूत होती है।

• दीर्घायु – हार्वर्ड के 80 साल के शोध के अनुसार, खुशहाल रिश्ते ही लंबी उम्र का असली रहस्य हैं


*आदरणीय प्रल्हाद दादा का मूल मंत्र :*

*सबके कारण मैं – सबमें मैं – सबके लिए मैं*

यह मंत्र हमें तीन बातें सिखाता है:

1. सबके कारण मैं – मेरा अस्तित्व और सुख समाज, प्रकृति और दूसरों के योगदान से है।

2. सबमें मैं – मैं किसी से अलग नहीं हूँ। मेरा सुख-दुख सबके साथ जुड़ा है।

3. सबके लिए मैं – मेरा ज्ञान, मेरी क्षमता, मेरा कर्म केवल मेरे लिए नहीं, बल्कि सबकी सेवा के लिए है।


*असल में जीवन कितना सुंदर है!*

*आनंद कितना सहज है!*

लेकिन हमें आसान रास्ता पसंद ही नहीं।

सबकुछ कठिन बनाने की आदत लग चुकी है।

तो करना क्या है?

आसान है –

अब तक मैं दूसरों को सुधारने की कोशिश कर रहा था, उसे बंद करना है।

और सिर्फ़, और सिर्फ़ खुद को सुधारना है।


ज़रूरत केवल दृष्टिकोण बदलने की है।

“कश्तियाँ बदलने की ज़रूरत नहीं,

दिशाएँ बदलो — किनारे बदल जाएँगे।”

बस अपने आचरण की दिशा बदली, तो जीवन के किनारे भी बदल जाएँगे l


भगवान श्रीकृष्ण 16वें अध्याय में कहते हैं –

*ऊर्ध्वमूलं अधःशाखम्*–

जड़ें ऊपर, शाखाएँ नीचे।

यानी, दिशा को “ऊर्ध्व” करो – ऊपर की ओर ले जाओ।

तब देखो, जीवन कितना मस्त मौला हो जाता है!


*कलंदर बनकर जीवन जियो,*

*चुचुंदर बनना छोड़ो।*


अपना भविष्य खुद लिखो।

अपने जीवन का

भाग्य-विधाता खुद बनो।


हाँ –

*तू ही है अपने भाग्य का शिल्पकार!*


🌿 अब सोचिए…

*आज आप किस राह पर हैं?”अकेले चलो” या “सबके साथ”?*


एक मस्त मौला चिंतन

*जयंत जोशी*

 
 
 

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