बारह वर्षों की यात्रा: अकेलेपन से एकांत की ओर
- ME Holistic Centre
- Sep 29
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जब परिस्थिति ने मुझे अकेले रहने को बाध्य किया,
तब लगा – यही तो जीवन का सबसे बड़ा दुख है।
पर आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो समझती हूँ –
मैं दोगुनी भूल में थी।
पहली भूल – यह सोचना कि यह सबसे बुरा है।
दूसरी भूल – यह न देखना कि कितनों की पीड़ा इससे कहीं अधिक है।
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥"
(भगवद्गीता 2.56)
समय ने सिखाया –
यह तो सबसे शुभ आशीर्वाद था।
क्योंकि यदि मैं परिवार में ही रहती,
तो मेरा संसार सीमित रहता –
कुछ रिश्तों, मित्रों और विद्यार्थियों तक।
पर इस वनवास ने
मुझे एक नया परिवार दिया –
आश्रमों और गुरुकुलों के साधु-साध्वियों का,
योगियों और पथिकों का,
और आप सब फेसबुक मित्रों का,
जिन्होंने मुझे अपनापन दिया।
अब समझ आया –
जो मैंने संसार समझा था,
वह तो मोह-माया का भ्रम था।
और जो मैंने सत्य माना था,
वह स्थायी सत्य नहीं था।
"अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।"
(भगवद्गीता 9.33)
इन बारह वर्षों ने
मुझे सीमाओं से परे जाकर
सम्पूर्ण जगत को परिवार मानना सिखाया।
अब हर चेहरा – आत्मीय है,
हर अनुभव – गुरु है,
और हर क्षण – ईश्वर का प्रसाद।
🙏 कृतज्ञ हूँ उस परिस्थिति के लिए
जिसे कभी अभिशाप समझा,
क्योंकि वही तो
मेरे जीवन का आशीर्वाद निकला।
"वसुधैव कुटुम्बकम्।"
(महाउपनिषद्)
- Manjushree Rathi










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